
साहित्य डेस्क (khabargali)
रक्षाबंधन पर्व को लेकर इन दिनों घरों में बड़ा असमंजस सा व्याप्त है। दूर पास सभी जगह एक ही चिन्ता है कि राखी कब बँधेगी इस बार? महिलाओं का फोन पर बस एक ही मुद्दा, कि राखी कैसे बँधेगी? विशेषकर उन स्त्रियों का जिनका पीहर भी उसी शहर में है, जहां वे रहती हैं। कुछ पण्डितों का कहना है कि इस बार राखी बाँधने का मुहूर्त 30 अगस्त को रात्रि 9 बजे बाद है। इससे पूर्व भद्रा होने के कारण दिनभर राखी नहीं बांँधी जा सकती। कुछ ज्योतिर्विद् 31 अगस्त को प्रतिपदा में भी राखी बाँधने का निषेध कर रहे हैं।
इधर कुछ लोगों का कहना है कि रक्षाबंधन बहन भाई के प्रेम का पर्व है। इसमें मुहूर्त का क्या लेना देना! यह पूरे दिन क्यों नहीं मनाया जाना चाहिए? वे कहते हैं कि पहले जब न इतने टीवी चैनल थे, न घर घर अखबार की पहुंँच, न सोशल मीडिया, न ज्योतिषियों के यूट्यूब चैनल, तब न कोई भद्रा देखता था, न शुभाशुभ काल। हमने निष्ठावान् और धर्मपरायण विद्वानों के घर भी पूरे दिन राखी का त्यौहार मनाते देखा है। बहनों और भाइयों का आना जाना लगा रहता था। अल्सुबह घर से निकला भाई दिनभर बस, ट्रेन में दौड़ते भागते अपनी ब्याहता बहनों के घर राखी बँधवाकर देर रात अपने घर लौटता था, जहांँ उनकी कुँवारी बहनें, चाचा ताऊ की बेटियाँ भी राखी के लिए भाई की प्रतीक्षा कर रही होती थीं। अब ये न कहना कि घर की राखी तो सुबह ही बँधवाकर निकल सकता था भाई? अरे, बिना सरवण चुँठाये घरों में राखी नहीं बाँधी जाती थी। तब न कोई भद्रा जानता था न मुहूर्त। जानता भी था तो पूछना अनावश्यक समझता था।
आज इस दुविधा पर विचार आवश्यक है। भारत में चार प्रमुख पर्वों में से एक है रक्षाबंधन। इन चारों में हम यह देख सकते हैं कि इनका एक शास्त्रीय पक्ष है एक लोकव्यवहार पक्ष। जैसे दीवाली का शास्त्रपक्ष लक्ष्मीपूजन है तो लोकपक्ष दिये जलाना, रोशनी करना, सजावट करना और पटाखे छोड़ना। दशहरे का शास्त्रपक्ष शस्त्रपूजन है और लोकपक्ष है रावण दहन। होली का शास्त्र पक्ष होलिका दहन है और लोकपक्ष रंग गुलाल लगाना, धमाल मचाना है। इसी प्रकार रक्षाबंधन का शास्त्रपक्ष श्रावणी कर्म, उपाकर्म संस्कार है और लोकपक्ष बहन द्वारा भाई के राखी बाँधना है। इन त्यौहारों के शास्त्रपक्षीय कार्य शास्त्रीय पद्धति से, पूरे विधि विधान से किए जाने चाहिए। लक्ष्मीपूजन, शस्त्रपूजा, होलिका दहन और श्रावणी कर्म मुहूर्त के अनुसार विधिवत् सम्पन्न किए जाने चाहिए तथा लोकपक्षीय कार्य यथा, दीये जलाना, पटाखे छोड़ना, रावण का पुतला दहन करना, रंग गुलाल लगाना तथा राखी बाँधना आदि औचित्य के अनुसार किए जाने चाहिए। मुहूर्त हो न हो, रोशनी करना रात में और रंग गुलाल लगाना दिन में ही शोभा देता है। सर्वक्षेष्ठ मुहूर्त हो तो भी रात में रंग लगाने, या भरी दुपहरी दीपक जलाने या सुबह सवेरे रावण का पुतला फूँकने के लिए कोई नहीं निकलता।
हमें यह मानना चाहिए कि लोक में रक्षाबंधन पर्व के भी दो स्वरूप प्रचलित हैं एक श्रावणी कर्म जो वैदिक/स्मार्त रीति से किया जाने वाला एक संस्कार है। तथा दूसरा बहनों द्वारा अपने भाइयों के हाथ में राखी बांधना, जो लोकसर्जित, लोकनियोजित और लोकानुमोदित कर्म है। यह दोनों भिन्न भिन्न उपक्रम हैं।
हमारा विनम्र अनुरोध है कि यह जो सहजरूप में सम्पन्न होने वाला लोकपर्व है इसे शास्त्रीय विधि निषेधों से संकुचित नहीं किया जाना चाहिए। शास्त्रीय विधान श्रावणी एवं उपाकर्म के लिए छोड़ दिया जाए। यहाँ यह भी देखा जाना चाहिए कि समाज में इसे एक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। दूर दराज की बहनें आवागमन की सुविधा देखकर ही घरों में निकल पाती हैं। उनके घर भी उनकी ननदें, बहन बेटियाँ और भाई भाभी आते हैं। ऐसे में किसी मुहूर्त और पंचांग के आधार पर राखी बंधन को नियत करना उचित प्रतीत नहीं होता।
जो पंडितप्रवर धर्मशास्त्रों के किए गए भद्रानिषेध को ही प्रमाण करते हैं उनसे अनुरोध है कि वह यह भी बताएंँ कि किस धर्मशास्त्र में "बहन के द्वारा भाई के हाथों में, भाभियों के हाथों में, अपने चचेरे, ममेरे, फुफेरे भाइयों के हाथों में, धर्मभाइयों के हाथों में रक्षासूत्र बाँधने का विधान है? धर्मशास्त्र तो उपाकर्म संस्कार के बाद अपने यजमानों, राजाओं, शासकों, अधिपतियों के हाथ में रक्षासूत्र बाँधने का निर्देश करता है। इसे बहनों और भाइयों के बीच ले आना तो इसका शुद्ध रूप से समाज द्वारा रचित लोकमंगल और लोकनुरंजन का उपक्रम है, और उसके सामाजिक ऐतिहासिक कारण रहे हैं।
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