विश्व वन्द्य स्वामी विवेकानंद

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राष्ट्रीय युवा दिवस पर विशेष लेख@khabargali

विश्वास ! विश्वास !! अपने आप पर विश्वास, परमात्मा पर विश्वास - यही उन्नति का एकमात्र उपाय है …. उठो ! उठो ! जागो .....! दुर्बलता के सम्मोहन से जागो !....

वास्तव में कोई भी दुर्बल नहीं। उठो! दृढ़ बनो, अपने भीतर की शक्ति को प्रकाशित करो

। समस्त शक्ति तुम्हारे भीतर है। .... यह विश्वास करो । और ... मत विश्वास करो कि तुम दुर्बल हो। ... तत्पर हो जाओ। ... तुममे जो देवत्व छिपा है, उसे प्रकट करो।...

इसी प्रकार के उद्घोष के द्वारा जन-जन को उसकी अपनी शक्ति पहचानने और स्वयं पर विश्वास कर अपने व्यक्ति को पूर्णता की ओर ले जाने के लिये सदा-सदा प्रेरित करने के कारण विश्व वंद्य हो जाने वाले स्वामी विवेकानंद जी ने 12 जनवरी 1863 को मकर संक्रांति के पावन दिन में कोलकता के नामी वकील श्री विश्वनाथ दत्त और उनकी पत्नि श्रीमती भुवनेश्वरी देवी की गोद को अपने जन्म से धन्य किया। गौरवान्वित माता-पिता ने इस बालक का नाम रखा नरेन्द्र दत्त। बचपन से ही नरेन्द्र को पशु-पक्षियों से अत्यधिक प्रेम था। उनके घर में भी कुछ पक्षी-पशु पाल रखे थे । जब नरेन्द्र अपनी माँ से रामायण, महाभारत की कहानियाँ सुनते, तो बहुत प्रभावित होते थे। विद्याध्ययन के लिये जब विद्यालय पहुँचे तो उनके शिक्षक कहा करते थे - ‘नरेन्द्र ! तुम्हारे पास विलक्षण बुद्धि, अनूठी एकाग्रता और अद्भुत स्मृति है।’ एक बार तो नरेन्द्र इतने मग्न होकर ध्यान में बैठे कि साँप के आगमन और अपने मित्रों के चिल्लाने की आवाज से भी अनभिज्ञ रहे । साँप उन्हें क्षति पहुँचाये बिना चला गया। दान, दया, दक्षिणा का भाव उनमें इतना अधिक था कि जो कोई भिखारी, सन्यासी उनके घर के निकट से निकलता, उसे नरेन्द्र अपने हाथ से कुछ न कुछ दे दिया करते थे।

उच्च अध्ययन के लिए कॉलेज पहुंचे , तो वहाँ उनके अध्यापकगण उनकी तीक्ष्ण बुद्धि को देखकर अचम्भे में पड़ जाते थे उनके एक शिक्षक विलियम हेस्टी का नाम विशेष उल्लेखनीय है, जो युवा नरेन्द्र के विषय में प्रायः कहां करते थे, कि वह जीवन में बहुत नाम कमायेंगे।‘ कॉलेज में नरेन्द्र ने पाश्चात्य, तर्कशास्त्र, भारतीय-यूरोपियन इतिहास और पूर्वी पश्चिमी दर्शन शास्त्र का अध्ययन किया किन्तु परम सत्य और ईश्वर के विषय में उनकी जिज्ञासा शान्त नहीं हुई बल्कि उन्हें अधिकाधिक व्याकुल किये जा रही थी। उन्होंने मठाधीशिवर, पुजारी, पादरी के साथ कई लोगों से पूछा - ’क्या ईश्वर हैं ? क्या हम उन्हें देख सकते हैं।’ उत्तर नही मिलने पर नरेन्द्र फिर ऐसे व्यक्ति की तलाश में रहने लगे जो उन्हें परम शक्ति (ईश्वर) का दर्शन करवा दें।

अन्ततः अपने संबंधी श्री रामचन्द्र दत्त से उन्हें श्री रामकृष्ण परमहंस के विषय में जानकारी मिली....... और वे उनसे भेंट करने के लिए दक्षिणेश्वर स्थित काली मंदिर पहुँचे। नरेन्द्र को देखते ही श्री रामकृष्ण की आँखों से खुशी के आँसू झरने लगे और वे अपने हाथो से ही उन्हें फल,मिठाईयाँ आदि खिलाने लगें। नरेन्द्र को विश्वास हुआ कि शीघ्र ही उनकी शंकाओं का समाधान होने वाला हैं। श्री रामकृष्ण के स्नेहिल मार्गदर्शन में अन्य शिष्यों के साथ नरेन्द्र भी ईश्वर प्राप्ति के लिए कठोर साधना में लग गए। पाँच वर्षों के साधना काल में नरेन्द्र को अनेक आध्यात्मिक अनुभूतियाँ हुई। 16 अगस्त 1886 को श्री रामकृष्ण के महा समाधि में लीन हो जाने के पश्चात् नरेन्द्र की प्रेरणा से कुछ शिष्यों ने आध्यात्मिक जीवन यापन के लिए घर छोड़ा, परिव्राजक बनकर भारत के विभिन्न तीर्थ स्थलों की यात्राएँ की । खेतड़ी के महाराजा ने उन्हें आमंत्रित किया और उनकी विदेश यात्रा का प्रबंध किया। अब नरेन्द्र स्वामी विवेकानंद के रूप में पहचाने जाने लगे थे।

अपनी तीर्थ यात्राओ के दौरान उन्होंने राजमहलों के वैभव और झोपड़ियों की निर्धनता में बसे भारत वर्ष की वास्तविक तस्वीर को देखा। अन्त में पर उन्हें अनुभव हुआ कि - भारत के पुनरूत्थान का प्रशस्त मार्ग उज्ज्वल हो उठा हैं और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि, ’’भारत का उत्थान उसकी आध्यात्मिकता से होगा। अन्धविश्वास, पाखण्ड, मिथ्याचार इत्यादि - जो इसकी शक्ति को ढ़के हुए है, उसे निकाल फेंकना होगा।’ इसके लिए सम्पूर्ण राष्ट्र को शिव भाव से जीव सेवा इस आदर्श से प्रेरित होकर कार्य करना होगा।’’

कन्याकुमारी से स्वामी विवेकानंद मद्रास पहुँचे तो अपनी धारा प्रवाह अंग्रेजी प्रभावी दार्शनिक दृष्टिकोण और विचार प्रस्तुत करनें की आधुनिक शैली के कारण शीघ्र ही वहाँ युवाओं के ह्रदय-सम्राट बन गये। अनेक संस्थाओं के लोगों द्वारा आग्रह पूर्वक प्रार्थना की गई, कि शिकागो में आयोजित होने वाले सर्वधर्म सम्मेलन में स्वामी जी हिन्दु धर्म का प्रतिनिधित्व करें । इसी तारतम्य में 11 सितम्बर, 1893 को शिकागो पहुँचे , जहाँ सात हजार श्रोताओं के समक्ष विभिन्न धर्मो के प्रतिनिधि मंच पर विराजमान थे। वहीं पीली पगड़ी, ताम्रमुखमंडल और आत्मविश्वास से भरपूर भारतीय युवा साधु ने श्रोताओ को ‘अमेरिकावासी भाई-बहनों’ कहकर सम्बोधित किया ’ तो रोमांचित होकर हजारों श्रोताओं ने अपनी सीट से खड़े होकर करतल-ध्वनि के साथ स्वामी विवेकानंद का अभिवादन किया। उस अवसर पर स्वामी जी के इस सार्वभौम संदेश ने सबको उद्धेलित किया -- शीघ्र ही प्रत्येक धर्म की पताका पर यह लिखा होगा- संघर्ष नही, सहयोग। पर भाव विनाश नही, पर भाव ग्रहण ।’’ ’मतभेद और कलह नहीं , समन्वय और शांति!..

विश्व धर्म सम्मेलन के समापन के पश्चात अमेरिका, इंग्लैण्ड में अनेक संस्थानों के लोगों के आग्रह पर भाषण दिये, जिनमें स्वामी जी ने भारत की गरिमा पर , उसकी महान सभ्यता और दार्शनिकता पर सारगर्भित व्याख्यान प्रस्तुत किये। फिर तो स्वामी विवेकानंद जिस गली से निकलते, वहीं लोग कहते कि, - ‘‘स्वामी विवेकानंद जैसे सन्यासी को जन्म देने वाला हिन्दु धर्म बहुत महान हैं।’’

स्वदेश लौटने पर उन्होंने सर्वप्रथम जन समुदाय के समक्ष यही उद्घोष किया- ’’ यदि पृथ्वी पर कोई ऐसा देश है , जिसे हम धन्य - पुण्य भूमि कह सकते हैं, यदि कोई स्थान हैं, जहाँ के सब जीवों को अपना कर्म भोगने के लिए आना पड़ता है, यदि कोई ऐसा देश है , जहाँ मानव जाति की क्षमा घृति, दया, शुद्धता आदि सद्वृत्तियों का सर्वाधिक विकास हुआ हैं, जहाँ आध्यात्मिक तथा सर्वाधिक आत्मान्वेषण का विकास हुआ हैं, तो वह भूमि भारत ही हैं। भारत के भीतर और भारत से बाहर रहने वाले जो लोग भारत वर्ष के विरूद्ध अनावश्यक दुष्प्रचार में संलग्न रहते हैं, उन्हें स्वामी विवेकानंद के उपरोक्त वचनो को कभी नही भूलना चाहिए । प्रत्येक भारतवासी का कर्तव्य हैं, कि भारत में जहाँ जहाँ जो कुछ श्रेष्ठ हैं, उसका प्रचार-प्रसार करे और जो कुछ श्रेष्ठ होना चाहिए, किंतु है नहीं, उसे श्रेष्ठ बनाने में योगदान दें ।

भारत के लिए उनका संदेश है -- हे भारत ! मत भूलना कि तुम्हारी नारी जाति का आदर्श है - सीता, सावित्री , दमयंती.. मत भूलना कि तुम्हारे उपास्य सर्व त्यागी उमानाथ शंकर हैं, मत भूलना कि तुम्हारा विवाह , तुम्हारा जीवन अपने व्यक्तिगत सुख के लिए नहीं है । सब दुखियों की सेवा के लिए तुम्हारा जीवन है । स्वामी जी ने पुनः पुनः समझाया कि - ’’ मनुष्य की सेवा ही ईश्वर की सेवा है । भारत वर्ष अमर है , यदि वह राजनीतिक और सामाजिक संघर्षों में संलग्न न हो।’’

आज के संघर्षपूर्ण एवं कलहपूर्ण दौर में स्वामी विवेकानंद के प्रेरक वचन अधिक प्रासंगिक हो गए हैं। विशेष रूप से युवाओं को प्रतिपल सन्मार्ग दिखाने और धैर्य पूर्वक उस पर भली-भाँति चलने के लिए प्रेरित करने की दृष्टि से आज भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि भारत की गौरवपूर्ण सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक श्रेष्ठता के संरक्षण के साथ-साथ विश्व में भारत को पुनः उसका समुचित सम्मान दिलाने में युवाओं की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। और युवा वर्ग अपनी इस भूमिका का सही ढ़ंग से निर्वहन तभी कर पाऐंगें जब स्वामी जी की शिक्षाओं का पालन करते हुए प्रत्येक युवा अपने उत्कर्ष के साथ ही भारतवर्ष के उत्कर्ष के लिये निष्ठापूर्वक कार्य करे । देश की सेवा में तत्पर रहे क्योंकि उस के प्रथम उपास्य तो उसके देशवासी ही हैं । इस हेतु स्वामी विवेकानंद की इन पंक्तियों को सदा स्मरण रखें - - बहु रूपों में खड़े तुम्हारी आगे, और कहां हैं ईश ? व्यर्थ खोज यह, जीव - प्रेम की ही सेवा पाते जगदीश ।‘श्रद्धा! श्रद्धा! परमात्मा में श्रद्धा! अपने ऊपर विश्वास ! यही महानता का रहस्य है ।’ जो कोई चिंतन आपको तेजस्वी बनाये, उसे ही ग्रहण करना होगा, एवं जो दुर्बल बनाये, उसका परित्याग करना होगा।

-उर्मिला देवी उर्मि,  साहित्यकार , समाजसेवी, शिक्षाविद रायपुर, छत्तीसगढ़ , भारत