गैर संवैधानिक घोषित करने के लिए SC से गुहार
याचिका में कहा यह अंग्रेजों के समय बनाया गया कानून है अभिव्यक्ति पर रोक लगाता है
नई दिल्ली (khabargali) सुप्रीम कोर्ट में राजद्रोह कानून को असंवैधानिक करार देने के लिए याचिका दाखिल की गई है। इसमें कहा गया है कि इस कानून का दुरुपयोग हो रहा है। यह अंग्रेजों के समय बनाया गया कानून है। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को छीनता है। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को इस मामले में दाखिल एक अन्य याचिका पर सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार को जवाब दाखिल करने के लिए दो हफ्ते का वक्त दिया है। इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट में फाउंडेशन ऑफ मीडिया प्रोफेशनल्स की ओर से अर्जी दाखिल कर गुहार लगाई गई है कि इस मामले में उन्हें भी दलील की इजाजत दी जाए। उसने दखल याचिका दायर कर राजद्रोह कानून को गैर संवैधानिक घोषित करने की गुहार लगाई है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से दो हफ्ते में जवाब दाखिल करने को कहा है। केंद्र ने जवाब के लिए और समय मांगा था। इससे पहले 30 अप्रैल को राजद्रोह की धारा (Sedition Law) का परीक्षण करने सुप्रीम कोर्ट को तैयार हो गया था। सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी धारा 124 ए की वैधता की जांच करने का फैसला किया था। जस्टिस यूयू ललित, जस्टिस इंदिरा बनर्जी और जस्टिस के एम जोसेफ की तीन जजों वाली बेंच ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा था।
याचिका में यह लिखा
सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता की ओर से उनके वकील राहुल भाटिया ने अर्जी दाखिल कर कहा है कि यह कानून ब्रिटिश राज में स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए बनाया गया था। यह कानून लोकतांत्रिक प्रकृति का नहीं है। साथ ही कहा कि ब्रिटिश की मंशा थी कि सरकार के प्रति जो खिलाफत रखता है उस पर यह कानून लगाया जाए। दरअसल, राजद्रोह संबंधित आईपीसी की धारा-124ए लोगों को विचारों की अभिव्यक्ति पर रोक लगाती है। अगर सरकार के खिलाफ कोई भी गंभीर किस्म का ओपिनियन है तो उसे सरकार और देश के खिलाफ मान लिया जाता है। सरकार के खिलाफ कोई भी वाजिब आलोचना, किसी नीति की आलोचना या किसी विधान की आलोचना की व्याख्या इस तरह से की जाती है कि वह सरकार के खिलाफ है और वह बयान सरकार के प्रति द्रोह है। जबकि राजद्रोह कानून में डिसअफेक्शन शब्द का इस्तेमाल किया गया है जो काफी अस्पष्ट है।
कानून का दुरुपयोग
राजनीतिक असहमति को कुचलने और प्रताड़ित करने के लिए लगातार इस कानून का दुरुपयोग किया जा रहा है। याचिकाकर्ता की ओर से एक रिपोर्ट का हवाला देकर कहा गया है कि 2010 में राजद्रोह के 10 केस थे और अभी 2020 में 67 पत्रकारों के खिलाफ केस कर दिया गया है। देखा जाए तो मीडिया व मीडिया कर्मियों पर राजद्रोह के नाम पर सेंशरशिप है। उन पर राजद्रोह के मामले बनाए जा रहे हैं। गैर तार्किक और गैर वाजिब तरीके से लगाए जाने वाले राजद्रोह के कानून को खत्म किया जाना चाहिए।
ब्रिटिश काल का कानून
ब्रिटिश काल में 1870 में यह कानून लाया गया। सरकार के प्रति डिसअफेक्शन रखने वालों के खिलाफ यह चार्ज लगाता है। आजादी के बाद हमारे संविधान में विचार और अभिव्यक्ति की आजादी मिली है और अनुच्छेद-19 (1)(ए) के तहत यह आजादी मिली है। साथ ही संविधान अनुच्छेद-19 (2) अभिव्यक्ति की आजादी में वाजिब रोक की भी बात करता है। इसके लिए कुछ अपवाद बनाए गए हैं। इसके तहत ऐसा कोई बयान नहीं दिया जा सकता जो देश की संप्रभुता, सुरक्षा, पब्लिक ऑर्डर, नैतिककता के खिलाफ हो या बयान मानहानि या कंटेप्ट ऑफ कोर्ट वाला हो ऐसे बयान पर रोक है।
क्या है शिकायत?
सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अर्जी में कहा गया है कि राजद्रोह का इस्तेमाल मीडिया कर्मियों के खिलाफ उन्हें प्रताड़ित करने के लिए लगाया जाता है। महीनों वे जेल में रहते हैं और ट्रायल का इंतजार करते हैं ताकि यह पता चले कि राजद्रोह का केस बनता है या नहीं। सुप्रीम कोर्ट से राजद्रोह कानून को गैर संवैधानिक घोषित करने की गुहार लगाई गई है।
UAPA का इस्तेमाल लोगों को बिना जमानत के जेल में सड़ाने के लिए किया जा रहा है?
दो पत्रकारों मणिपुर के किशोरचंद्र वांगखेम और छत्तीसगढ़ के कन्हैया लाल शुक्ला की याचिका पर ये नोटिस जारी किया है. इसमें बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन बताते हुए इस प्रावधान को चुनौती दी गई थी. खंडपीठ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), 1860 की धारा 124-ए को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी. इसके तहत राजद्रोह के अपराध में सजा दी जाती है. याचिका में दावा किया गया कि धारा 124-ए बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हनन है, जो कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) के तहत प्रदान किया गया है. याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि वे अपनी संबंधित राज्य सरकारों एवं केंद्र सरकार पर सवाल उठा रहे हैं. सोशल मीडिया मंच फेसबुक पर उनके द्वारा की गईं टिप्पणियों एवं कार्टून साझा करने के चलते 124-ए के तहत उनके विरूद्ध FIR दर्ज की गई हैं. याचिका में कहा गया है कि 1962 से धारा 124 A के दुरुपयोग के मामले लगातार सामने आए हैं
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