रायपुर (khabargali) सन्मति नगर फाफाडीह में जारी चातुर्मासिक प्रवचनमाला में आचार्यश्री विशुद्ध सागर जी महाराज ने कहा कि मित्रों हमेशा विवेक से काम लेना चाहिए। ज्ञानियों अलंकार प्राण तक ले रहे हैं,अलंकार मूल वस्तु नहीं है, अलंकार से प्राण चले जाते हैं। सुनिए ध्यान से एक मां भगवान के दर्शन करने मंदिर जाती है तो बहुमूल्य वस्त्र आभूषण पहने हुए होते हैं। प्रभु के दर्शन करने शरीर पर अलंकार पहन कर गई और जैसे गली में प्रवेश करती है पीछे से एक युवा लग जाता है,युवा ने चेन तो झटकी,साथ में गर्दन भी छिल गई और चेन भी गई। मित्रों ये सत्य घटना है और वर्तमान में ये घटित भी हो रहा है,इसलिए संभल कर चलें। आचार्यश्री ने कहा कि एक अन्य सत्य घटना में चेन छीनने वाला आया और व्यक्ति ने उसे पहचान लिया,मित्रों चोर लुटेरे यदि आप की सामग्री छीनने आए और यदि आसपास कोई नहीं हो तो आप पहचान भी जाओ तो अज्ञानी बन जाना,चेन ही जाएगी लेकिन जान बच जाएगी।
एक सत्य घटना है कि एक सेठ से पुत्र को पड़ोसी ने अपहरण कर लिया,अपहरणकर्ता ने दो-तीन दिन बालक को छुपा कर रखा,तीसरे दिन बच्चे को खाना खिलाने के लिए जैसे उसका मुंह खोला तो बच्चे ने कहा चाचा आप मेरे साथ ऐसा कर रहे हो ? बालक के इतना कहते ही पड़ोसी चाचा का कसाई भाव जागृत हो गया और महावीर जयंती के दिन बच्चे का गला घोट कर पुलिया के नीचे दबा कर आ गया। एक अन्य घटना में स्वयं के भतीजे को चाचा ने मार डाला।
आचार्यश्री ने कहा कि ज्ञानियों यदि चोर लुटेरे को पहचान भी लो तो स्वयं के मुख से पहचान मत बोलना,वरना जान चली जाएगी। पहचान होने पर भी यदि आसपास कोई नहीं हो तो आंखें बंद कर लेना,कम से कम धन को लेकर जाएगा,प्राण तो बच जाएंगे। धन तो पुन: अर्जित कर लोगे लेकिन प्राण पुन: नहीं आएगा। आप वस्त्र व आभूषण सुंदर पहनकर निकलोगे तो ध्यान देना कि आपकी रक्षा का कोई स्थान नहीं है तो धन भी जाएगा और विवेक से नहीं सोचा तो प्राण भी जाएंगे।
आचार्य श्री ने कहा उपमा में और उपकार में दोनों बातें ध्यान से सुनना सत्यार्थ को मत भूल जाना पड़ोस की माताएं इतना बच्चों को दुलार देती है जितना आपकी मां न दे पाए तो यह कह मत देना कि यह मेरी मां है। मित्रों यशोदा नारायण कृष्ण की मां है लेकिन वह पालने वाली मां है,जन्म देने वाली मां तो देवकी ही है, उपकारी यशोदा है लेकिन सत्यार्थ देवकी है,उपकार की राग में सत्यार्थ को मत भूल जाना। मेरे मित्रों देवकी ने जन्म दिया है लेकिन यशोदा ने पालन किया है, तब भी नारायण कृष्णा यह नहीं भूल पाए कि मेरी मां जन्म देने वाली देवकी भी थी।
आचार्यश्री ने कहा कि आपके पिता ने आपको पालन कर बड़ा किया,आप कुछ दिनों के लिए बाहर गए तो वहां आपको कोई बड़ा उपकारी आदमी मिल गया, आप लौट कर उस व्यक्ति के साथ रायपुर आए और स्टेशन में किसी ने आपको पूछा कि यह कौन है ? तो आपने कहा मेरे पिताजी हैं,जब तुम फाफडीह अपने घर के पास आए और पुन: किसी ने पूछा कि यह कौन है तो आपने कहा मेरे पिताजी हैं। अरे अभागे बाजू में तेरे खुद के पिता भी खड़े थे,तुमने उन्हें देखा नहीं और चार दिन के उपकारी के पीछे मूल (स्वयं के पिता) को भूल गया।
आचार्यश्री ने कहा कि जब तुम्हारी शादी हुई तो पत्नी ने आप पर उपकार किया, नाना जगह से तुम्हारे चित्त को रोक लिया, तुमको रोटी खिलाती है, लेकिन मित्र उपकार करने वाली को देख कर जन्म देने वाली मां को मत भूल जाना,पत्नी ने उपकार किया है लेकिन जन्म नहीं दिया है। सभी बेटे ध्यान से सुनो कि कोई ससुराल जाकर अपने ससुर को कहे पिताजी-पिताजी,यह व्यवहार से कहो ठीक है लेकिन यह कहे कि अब आप ही मेरे पिता हो अन्य कोई नहीं, ईमानदारी से बोलना जन्म देने वाले पिता का ह्रदय उस समय क्या बोलेगा ?
आचार्यश्री ने कहा जिस दिन से तुम्हारी शादी हुई उस दिन से आप ससुर का सम्मान करने लगे, अच्छी बात है लेकिन घर में बैठे पिताजी का अपमान अच्छी बात नहीं है। यदि ऐसा कर दिया तो विश्वास मानिए, जीते जी पिता की हत्या है। मित्रों गले को बाहर निकालना खून बहाना है लेकिन कान में कटु शब्द बोलना यह आत्मा का रक्त बहाना है। धन्य है आचार्य पदमनंदी जो धम्म रसायण ग्रंथ में कितने गुण लिख कर चले गए। ध्यान रखें कि उपमा,उपकार इनके पीछे हम न भूलेंगे सत्यार्थ।
भावों की विशुद्धि ही मोक्ष दिलाएगी : मुनिश्री निग्र्रंथ
सागर जी मुनिश्री निग्र्रंथ सागर जी ने कहा कि हमें प्रभु के जैसा पुरुषार्थ प्रारंभ करना है,देह में नहीं विदेह में विराजमान होना है। मोक्ष की प्राप्ति निज आत्म प्रदेशों से होती है,कोई प्रदेश अथवा कोई भी क्षेत्र मोक्ष नहीं दिलाता। यदि संसार के क्षेत्र मोक्ष दिलाते होते तो हमने निगोध से लेकर आज तक अनंत पर्याओं को धारण किया और अनेक प्रदेशों में गमन किया, लेकिन हमें मोक्ष निर्वाण की प्राप्ति नहीं हुई। यह तीर्थ भूमिया, निग्र्रंथ भेष भी मोक्ष नहीं दिलाएंगे,केवल भावों की विशुद्धि ही मोक्ष दिलाती है। कोटी जन्मों से हमने इस भेष को धारण किया, अनंत बार तपस्या की, लेकिन फिर भी यह परम पद निर्वाण को प्राप्त नहीं किया, जबकि आत्म ज्ञान से युक्त एक क्षण की तपस्या भी अनंत भवों के कर्मों का क्षय करा देती है और उस निर्माण पद को प्राप्त करा देती है, लेकिन हमारी तपस्या में, हमारे भावों में कहीं न कहीं कमी थी। वस्तु की प्राप्ति का होना नियति है और जो वस्तु प्राप्त हुई है उसका कैसा प्रयोग करना या नहीं करना,यही हमारा पुरुषार्थ है। आप भी अपने जीवन में कुसंस्कारों को छोड़कर सुसंस्कारों को धारण करें। उस परम पद निर्वाण को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करें।
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