चर्चित पुरातत्वविद और सांस्कृतिक अध्येता राहुल सिंह के कलम से
ख़बरगली @सहित्य डेस्क
‘छत्तीसगढ़ में रामः मूर्त और अमूर्त स्वरूप‘ राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ शासन द्वारा 5 से 7 फरवरी 2021 को किया गया था। संगोष्ठी के साथ श्रीराम यात्रा स्थलों की छायाचित्र प्रदर्शनी, रामनामी भजन तथा रामकथा के प्रसंगों की सांस्कृतिक प्रस्तुति के साथ स्थल भ्रमण का कार्यक्रम हुआ। शनिवार, 6 फरवरी के एक अकादमिक सत्र का दायित्व मुझे सौंपा गया, उस अवसर पर अध्यक्षीय वक्तव्य के रूप में कही गई बातें, मुख्यतः रिकार्डिंग तथा अपने नोट्स और स्मृति के आधार पर संशोधित कर यहां प्रस्तुत है-
राम-राम, जय जोहार।
आप सबसे दुआ सलाम होती रही है, लेकिन औपचारिक तौर पर माइक्रोफोन पर आकर अब फिर से एक बार राम-राम। ‘राम वन-गमन पथ’ जिसकी बात आज यहां हो रही थी, राज्य में हो रही है, हम यहां प्रदर्शनी में देख रहे हैं और संगोष्ठी का विषय भी है- राम: मूर्त और अमूर्त। यहीं से अपनी बात शुरू करता हूं। दरअसल राम के मूर्त और अमूर्त दोनों पक्षों के बीच अगर हम कोई समन्वय देख पाते हैं, उसे देख पाने का, समन्वय का, महसूस कर पाने का ही, यह आयोजन है। कई शोध-पत्रों में, और उनमें आई बहुत सारी जानकारियों से स्पष्ट हो रहा है कि यह राम के नाम का ही प्रभाव है कि यहां पढ़े जा रहे परचों में शोध तो है ही लेकिन साथ-साथ उसमें अपनी अमूर्त-आस्था की बात भी कही गई है।
इस सत्र के संयोजक डॉ. ब्रजकिशोर प्रसाद, तथा प्रतिवेदक डॉ. रामकिंकर पाण्डेय का अभिवादन करते हुए, शैलेश कुमार मिश्रा जी का अंगरेजी परचा, जिसमें छत्तीसगढ़ की संस्कृति में भगवान श्री राम और रामकोठी की चर्चा हो रही थी, रामकोठी के बारे में बहुत सारी जानकारियां आई हैं और यह हमारे लिए गौरव का विषय है कि यह सामुदायिक सहकारिता की व्यवस्था है, बैंकिंग की, ऋण की व्यवस्था है, वह राम के नाम पर पारंपरिक रूप में छत्तीसगढ़ में अभी भी विभिन्न स्थानों में है। ललित शर्मा जी ने शुभ्रा रजक जी के साथ, छत्तीसगढ़ के रामनामी पंथ को रामभक्ति की पराकाष्ठा निरूपित करते हुए बहुत विस्तार से बातें रखीं। उनके परचे पर एक दो बात कहना चाहूंगा कि रामनामियों पर बहुत गंभीर शोध हुए हैं, जिनमें खासकर, एक शोध हुआ था, अमेरिकी शोधार्थी थे, डॉ. लैम्ब, उन्होंने अपना नाम बदलकर रामदास कर लिया था डॉ. रामदास लैम्ब। ‘रैप्ट इन द नेम: द रामनामीज, रामनाम एण्ड अनटचेबल रिलीजन इन सेन्ट्रल इंडिया‘ नामक उनकी पुस्तक है। दूसरी शोधार्थी दक्षिण भारतीय महिला हैं, जो भोपाल में रहती थी और अब इंग्लैंड में हैं सुन्दरी अनीथा, उनका भी रामनामियों पर शोधकार्य है- डॉमिनेंट टेक्स्ट्स, सबआल्टर्न परफारमेंसेजः टू टेलिंग्स आफ द रामायण इन सेंट्रल इंडिया। रामनामियों पर ये दो पुराने काम बहुत महत्वपूर्ण हैं और अब भी अध्ययन-प्रलेखन हो रहा है, फिल्म्स डिवीजन ने वृत्त-चित्र तैयार कराया है, इस विशिष्ट परंपरा का, हमारी धरोहर का, इस तरह सम्मान, यह सब आवश्यक और बहुत महत्वपूर्ण है।
पीयूष कुमार पाण्डेय जी ने छत्तीसगढ़ में राम और जनजातीय समाज की चर्चा, सरगुजा के संदर्भ में की है। आज ही मैं याद कर रहा था, समरबहादुर सिंह जी की बहुत प्रसिद्ध पुस्तक है ‘सरगुजा एक अध्ययन’, उन्होंने सरगुजिया रामायण पर भी गंभीर काम किया है। रामकथा पर सरगुजा में और भी काम इस तरह के हुए हैं। चंद्रशेखर शर्मा जी ने छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति में राम के व्यापक संदर्भों को रेखांकित किया। अयोध्या शोध संस्थान के निदेशक आदरणीय योगेन्द्र प्रताप सिंह जी, तथा संजीब कुमार सिंह जी, डा. रामवतार शर्मा जी यहां हैं, जिनकी सार्थक भागीदारी से इस आयोजन की गरिमा बढ़ी है।
कुछ बातें संक्षेप में कहूंगा। राम के नाम पर जितनी बातें होती हैं, ‘बौद्धिक विमर्श‘ होते हैं, राम की सत्ता, वन-गमन पथ, उसकी ऐतिहासिकता आदि के संबंध में, उसके लिए एक बात याद आती है कि, यूं बड़े हल्केपन से कहा जाता था उस चुटकुले का मर्म मुझे बहुत बाद में समझ में आया। एक मरीज आपरेशन थियेटर में है, आपरेशन होता है और डाक्टर कहता है ‘ओह गॉड, सारी, ही इज नो मोर‘ और अपना छुरा, चाकू, कैंची, छोड़़कर, दस्ताने उतार कर, बाहर जाने लगता है। सिस्टर सब सामान इकट्ठा करने लगती है, मरीज कहता है कि सिस्टर मैं अभी जिंदा हूं। सिस्टर उससे कहती है ‘चुप रहो तुम डाक्टर से ज्यादा जानते हो क्या?‘ दरअसल हम उस युग में जी रहे हैं। ‘उस युग में जी रहे हैं‘ का आशय था कि, मैं किसी का नाम नहीं लूंगा, संदर्भ बार-बार आपके सामने आते होंगे, जाति प्रमाण-पत्र, जन्म प्रमाण-पत्र, मृत्यु प्रमाण-पत्र के अभाव में किसी तरह से किसी व्यक्ति के होने का अस्तित्व नकार या स्वीकार करने की स्थिति बन जाती है और वह विवादित हो जाता है। हमारे अब के समकालीन साथ के लोगों में जिनको हम जन्मना जान रहे हैं, उनकी जाति उनका जन्म, विवादित हो जाता है। फिर यह, यानि राम वन-गमन पथ, राम की ऐतिहासिकता, तो सदियों पुरानी बात है, उसका कभी मूर्त होना अब हमारी सामूहिक चेतना में अमूर्त सुरक्षित है। हमारी आस्था, हमारी परंपरा और हमारे विश्वास से संपृक्त।
मेरे सामने एक अवसर आया पासपोर्ट बनाने का, आवश्यक दस्तावेजों की सूची मिली, उसमें जन्म प्रमाण-पत्र भी था, मेरा जन्म प्रमाण-पत्र था नहीं, मैं घबरा गया, अब क्या करूंगा, मेरा अस्तित्त्व ही नहीं, ऐसी पासपोर्ट वाली दुनिया में। फिर ध्यान गया, कोई ‘कट आफ डेट‘ थी कि अगर अमुक सन के पहले पैदा हुए हों तो स्कूल के प्रमाण-पत्र में दर्ज जन्मतिथि से काम हो जाएगा, तब जाकर राहत हुई। हम इस युग में जी रहे हैं, जब राम की बात करते हैं तब वह बीती हुई, भूतकाल की बात है और भूतकाल की बात अनुमान होती है, वहां सिर्फ दस्तावेज और इतिहास के भरोसे नहीं, बहुत कुछ आस्था से चलता है। आप यहां जिस आधार पर आमंत्रित किये गये उस नस्ती पर जिसने दस्तखत किए, जिसके कारण आदेश जारी हुआ, वे इस विभाग के संचालक हैं। जब आपको आमंत्रण पहुंचा, हो सकता है कि आप नाम से परिचित हों, लेकिन शायद ही जानते हों, कि हस्ताक्षरकर्ता पदाधिकारी वास्तव में कौन है? और सोचिए उस अनजान के दस्तखत के भरोसे आप यहां पधारे। दुनिया इसी तरह चलती है। एक दूसरे के विश्वास के आधार पर। पूरा का पूरा एक नक्शा बन जाता है, कागज पर, एक प्लान, एलिवेशन बन जाता है, और वही मूर्त रूप लेता है, किसी भवन का, किसी मंदिर का। मूर्त और अमूर्त की आवाजाही, अभेद।
राम के बारे में एक प्रसंग रोचक लगता है। डा. के.पी. वर्मा जी के परचे का संदर्भ ले रहा हूं, शंभू यादव जी ने भी प्रकाश डाला था। विष्णु के दशावतार प्रतिमाओं की चर्चा थी। दशावतारों में, सातवें राम हैं। मूर्ति शिल्प में कई बार बलराम एक लिंक-संयोजक पात्र हैं। वे देवकी और रोहिणी के भी संयोजक हैं। एक में गर्भ, जन्म कहीं और। एक जगह वो सहोदर हैं एक जगह सयोनिज हैं। वे जिस तरह दो मांओं को आपस में जोड़ते हैं, उसी तरह कृष्ण और राम को भी जोड़ते हैं। विकास क्रम की बात ध्यान करा रहा हूँ, कहा जाता है परशुराम, सभ्यता के उस चरण के हैं जो आखेट का, आखेटजीवी युग था, परशु ले कर चलते हैं, शिकारी मानव के प्रतिनिधि हैं, जो गुफावासी मानव था। जब मानव सभ्यता मुख्यतः शिकार पर आश्रित थी। उसके बाद धनुर्धारी राम आते हैं, शिकार वे भी कर रहे हैं, लेकिन परशु वाला आदिम शिकार नहीं, कुछ उन्नत तरीके से शिकार कर रहे हैं। वे कृष्ण से जुड़ते हैं, कृष्ण गो-पालक हैं, राम और कृष्ण, दोनों के बीच हलधारी, हलधर बलराम हैं। इस तरह परशुराम, राम और बलराम तीनों के नाम में राम तो हैं ही लेकिन कृष्ण और राम के बीच यानि धनुर्धारी शिकारी, और गोपालक के बीच, हलधारी कृषक बलराम इनमें संयोज्य, देखा जा सकता है।
एक और बात। हास्यास्पद लगने वाला विवाद होता है, कोई कथा ऐसी आई जो प्रचलित स्थापनाओं से कुछ अलग है, तो कहा जाता है कि बदमाशी है उस जर्मन मैक्समूलर की, आकर उसने सब वेद-शास्त्रों की तबाही कर दी, सब सत्व निकाल लिया। हमारे धर्म-ग्रंथ फिरंगियों के हाथ में पड़े, और उन लोगों ने गड़बड़ कर दी। लेकिन कथाओं का भिन्न पाठ गीता प्रेस के संस्करण में भी हो, तब बात बनाई जाती है, वह तो क्षेपक है। हम अपनी उदार परंपरा के विपरीत, अपनी मान्यता, अपनी धारणा से अलग किसी बात को स्वीकार करने में कई बार बहुत संकीर्ण होने लगते हैं। ए. के. रामानुजन बड़े अध्येता हैं शास्त्रों के, उनकी प्रसिद्ध पुस्तक, वस्तुतः एक छोटा सा शोध-पत्र है ‘थ्री हंड्रेड रामायणाज ...’। इसी तरह फादर कामिल बुल्के, यानि बाबा बुल्के का रामकथा पर शोध है, उस काम के आधार पर 300 रामायणों की बात कही है, वैसे रामायण और रामकथा उससे भी अधिक हैं। इनमें अलग-अलग कथा-क्रम और कथा का विन्यास, विकास है, अलग-अलग मान्यताएं हैं, जो क्षेपक मान ली जाती हैं वह भी कम रोचक, कम महत्वपूर्ण नहीं है, कम आस्था पैदा करने वाली नहीं है, वह भी कम रसमय नहीं हैं, इसलिए राम को कोई भी मन, उसे उतनी ही आसानी से स्वीकार कर सकता है, रम सकता है, अड़चन रूढ़िग्रस्त को ही हो सकती है, उदारचेता को नहीं। दूसरी छोटी सी बात, हम पंचक्रोशी यात्रा की बात करते हैं। आज सुबह राकेश चतुर्वेदी जी ने की, वे ‘राम वन-गमन पथ‘ के चप्पे-चप्पे से परिचित हैं। उन्होंने सिल्क रूट की चर्चा की है, उस मार्ग पर की जाने वाली यात्रा या पंचक्रोशी यात्रा है, ठीक उसी तरह ‘राम वन-गमन पथ‘ है, वह भी वैसी ही यात्रा है। मराठी मित्र बताते हैं कि शिवाजी ने जो पन्हालगढ़ यात्रा की थी, उस विशाल गढ़ की यात्रा पर आज भी अनुकरण करते हुए लोग जातेे हैं और उस काल का स्मरण कर रोमांचित होते हैं, गौरव-बोध होता है, आनंद लेते हैं। पंचक्रोशी या ‘राम वन-गमन पथ‘ जैसे निर्धारित पथों पर चलना, ठीक वैसे ही उस पावन जातीय-स्मृति को जीना है।
एक आखरी बात जो इस तरह के विवादों, कथाओं और काल निर्धारण को ले कर, वर्मा जी के परचे के संदर्भ में कहना चाहूंगा कि सीतामढ़ी गुफा में माना जाता है कि सीता ने विश्राम किया था, तो फिर इतिहास वालों को थोड़ी परेशानी होती है। आस्था है कि ऐसा हुआ था, फिर इसमें काल का विवाद अनावश्यक है। सीतामढ़ी का निर्माण काल 8वीं शताब्दी है, और उसी गुफा में सीता आई थीं, मतलब 8वीं शताब्दी के बाद? फिर तो इतिहास कालक्रम सीता का काल 8वीं सदी के बाद का हुआ। मगर कहें कि सीता किसी काल में यहां आई थीं, उनकी स्मृति में यह गुफा बनाई गई, तब तो कोई समस्या नहीं होगी, अन्यथा इतिहास की बात आती है और तब आस्था के साथ उसका घालमेल नासमझी होगी। कई बार ऐसा संकीर्ण दृष्टि के कारण होता है। उसके निराकरण के लिए, जो कुछ मैंने पढ़ाई की है, उसमें वासुदेव शरण अग्रवाल जी का उल्लेख करते अपनी बात पूरी करता हूँ। वासुदेव शरण अग्रवाल जी ने कहा है- ‘पुराण-निर्माता सुधी जनों ने भी वैदिक तत्वों को ही लोकोपकार के लिए अनेक तरह से कथा और गल्पों का आश्रय लेकर वर्णित किया है, . . . कितनी ही कथाएं श्रुतिवर्णित रहस्यों के विस्तार-मात्र हैं‘ मुख्य बात अब यहां आती है ‘साधारण लोग कथा में ही भटके रहते हैं, एक वे हैं, जो कथाओं को सत्य मानते हुये भी अनेक तत्व को नहीं जानते, दूसरे वे हैं जो तत्व को न देखते हुए कथाओं को असत्य मानते हैं, दोनों की बात एक सी है। ज्ञानी जन कथा से ऊपर उठकर इसके रहस्य को समझते हैं, और अनेक भांति से मूल सिद्धांत को ही पल्लवित देख आनंदित होते हैं।
मैं मानता हूं कि आप सभी के मन में वही आनंद, रस-संचार हो, धन्यवाद।
( विशेष : उपरोक्त लेख राहुल कुमार सिंह जी के ब्लॉग “सिंहावलोकन “ से लिया गया है । लेखक छत्तीसगढ़ के चर्चित पुरातत्वविद और सांस्कृतिक अध्येता हैं। साथ ही साहित्य एवं कला में भी उनकी उल्लेखनीय दखल है।)
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