युवा शाइर सुदेश कुमार मेहर का ग़ज़ल संग्रह -"तीली" के अशआर

तीली

तीली" पुस्तक समीक्षा

ख़बरगली। ग़ज़ल अपने आरंभिक दौर में ओहदेदारों, जागीरदारों, मनसबदारों , अमीरों, उमराओं, नवाबों बादशाहों के हल्कों तक सीमित थी. ग़ालिब का दौर आते आते यह आम फ़हम और आम अवाम तक अपनी पहचान बनाती गई और आज ग़ज़ल हर ख़ास –ओ-आम में मक़बूल और लोकप्रिय है.इसमें मुहब्बत ,हुस्न ,इश्क,हिज़्र ,विसाल,रंज़,आंसू,हँसी,खुशी,आहें,कराहें,जाम-मीना,साकी की बातें होती रहीं.उस दौर को “अदब-बराए-अदब” कहा गया.चूँकि यह सारे हाव-भाव,ख़याल, जज़बात मनुष्यता के आरम्भ से ही विद्यमान हैं और अंत तक रहेंगे ,इसलिए आज भी जब सुदेश कुमार मेहर यह कहते हैं –

मैं जी रहा हूँ अगर ,तो हो एतिबार मुझे, कभी तो आ के रुलाये वो ज़ार-ज़ार मुझे.

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तो आश्चर्य नहीं बल्कि कहने के अंदाज़ के बदलाव का अहसास होता है. ज़ार ज़ार शब्द जोर जोर से साइन में धड़कने लगता है. आज ग़ज़ल ने एक नये लहजे को अपना लिया है और सीधे –सीधे सरल लफ़्ज़ों का प्रयोग मनो-भावों के विज्ञान को नई आभा प्रदान कर रहा है

,देखें- सोच कर ये कि मुझे तू भी पलटकर देखे, दूर तक तुझको कई बार पलटकर देखा. आस्मान और धरती अपने आप में पूर्ण हैं पर एक दुसरे के पूरक भी हैं, इनका मिलन असंभव है,भ्रम यह ज़ुरूर होता है कि दूर कहीं आस्मान और धरती मिल गए हैं.दो मुहब्बत भरे दिलों का भी हाल यूँ ही है कि यह दूर रह कर भी एक दुसरे में गुम रहते हैं.

मेहर जी का यह शेर देखिये जो हुस्न और इश्क़ के दायरे में रहते हुये मुहब्बत की पूर्णता को बयान कर रहा है—

मुझे है इश्क उसी से मगर है सच ये भी, वो आसमां तो मैं धरती हूँ और क्या बोलूँ.

ग़ालिब साहब ने अपने दौर में कहा था “इश्क ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया” मगर इसी लहजे को एक नये जदीद लबो-लहजे में सुदेश कुमार मेहर यूँ पेश करते हैं-

न कहना उसको लेकिन सच यही है, किसी लायक कहाँ छोड़ा है उसने. जहां पर मुहब्बत रुक गई समझो वहीँ पर ज़िंदगी रुक गई. न आगे बढ़ा जा सकता है न पीछे हटने की गुंजाइश बचती है. मुहब्बत से पलटना दुश्वार होता है. जिंदगी एक ही जगह पर ठहर जाती है .

इसी ग़ज़ल के अगले शेर में यही जज़्बा नमूदार हो रहा है-

जहां से लौटकर मैं आ न पाऊँ , मुहब्बत में वहाँ छोड़ा है उसने. मुहब्बत एक ऐसा जज़्बा है जिसकी कोई सीमा अभी तक निर्धारित नहीं की जा सकी है और न भविष्य में इसकी कोई गुंजाइश बची है.इस समंदर का कोई साहिल ही नहीं है तो जब सुदेश कुमार मेहर ये कहते हैं

तो क्या ग़लत है— हम से पूछे न कोई कितनी मुहब्बत है हमें, हम मुहब्बत को हदों में नहीं रखते साहिब. अहले फ़हम यहाँ साहिब की रदीफ़ से मुत्तासिर हुये बिना नहीं रह सकते.

इसी बात को और साफ साफ बयान करता शेर है—

इश्क़ है इश्क़ दिलासा नहीं देने वाला . ये समंदर तो किनारा नहीं देने वाला. बयान सच है कि जज़्बात कभी बदलते नहीं मगर उनके बयान करने के लहजे बदलते रहते हैं.जज़्बात का स्वरुप बदल जाता है,लफ़्ज़ों के मआनी बदल जाते हैं, प्रदर्शन के हाव-भाव बदल जाते हैं.अभिव्यक्ति के अंदाज़ बदल जाते हैं.

अब इसी शेर में तहज़ीब के मआनी देखिये—

तमाम शह्र से तहज़ीब से हमारी ख़ुश, लिहाज़ हमने कभी आपका नहीं रक्खा. शाइरी में ऐसे अलफ़ाज़ का इस्तेमाल करना जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता हो,कमाले-फ़न है जो विरले शाइरों को ही नसीब होता है.अदीब ही नये शब्दों का मुहावरों का शब्द-विन्यासों का जन्मदाता होता है .शेर देखें- तुम्हारे शह्र की बेलौस बारिश ख़ूबसूरत है , तुम्हारे शह्र की बेबाक़ सर्दी इश्क़ है मेरा. उपरोक्त शेर में आप बेलौस बारिश और बेबाक़ सर्दी को आप क्या कहेंगे? यहीं से एक शाइर की क़ाबिलियत का अंदाज़ा लगाया जाता है और इसी से उसके फ़न का मुनफ़रिद लेहजा क़ायम होता है जो अदब में उसे अमरता प्रदान करता है.इसी बात की तसदीक़ में यह शेर भी पेश है—

हर एक लफ्ज़ है फीका ,है बेसुआदा सा बहुत लज़ीज़ ये ख़ामोशियाँ हमारी हैं . मैं यह नहीं कहता कि बड़े से बड़े कवि,शाइर ,पोएट्स की सभी रचनाएं स्तरीय ,मेयारी,साहित्यिक,अदबी होंगी ही बल्कि यह परम सत्य है की शाइरी में ,वो भी ग़ज़ल में वो बात है कि इसका एक ही शेर शाइर को अमरत्व बख्श सकता है. सुदेश कुमार मेहर ने नज्में भी कही हैं,मगर उनकी नज्मों में आधुनिक हिंदी कविताओं की तरह हर प्रकार की स्वतंत्रता नहीं है बल्कि एक लय ,रिदम,ताल है क्योंकि उन्हें शाइरी की सशक्त शाखा अरूज़ की बहरपूर मालूमात है और वे इस विधा के तकनीकि पहलू की बहर्पूर जानकारी रखते हैं. अपने मख़सूस लबो-लहजे को इख्तियार करते हुए सुदेश कुमार मेहर की ग़ज़ल अदब-बराय-अदब की मंज़िलों को कामयाबी से सर करती हुई “अदब-बराय-ज़िन्दगी” की दुश्वार राहों में सफ़र ज़ारी रखे है और मुझे यकीन है की यह अदब-बराय-हक़ीक़त ज़िन्दगी की मंज़िल तक पहुँच जायेगी.

                                                                                                                                                                           - दुआगो खादिमे-अदब अता रायपुरी