प्रभाकर चौबे स्मृति संवाद का चौथा आयोजनःसाहित्य की नयी चुनौती

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“बिना प्रतिरोध का साहित्य रचे चुनौती से निबटना कठिन होता है”

 रायपुर (khabargali) प्रभाकर चौबे फाऊंडेशन के तत्वावधान में वरिष्ठ साहित्यकार प्रभाकर चौबे स्मृति संवाद श्रंखला के अंतर्गत चौथा आयोजन “साहित्य की नयी चुनौती” विषय पर भिलाई में आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार अरूणकान्त शुक्ला ने की तथा वरिष्ठ आलोचक प्रो जयप्रकाश दुर्ग व वरिष्ठ आलोचक प्रो सियाराम शर्मा, भिलाई ने वक्तव्य दिए।कार्यक्रम का संचालन जीवेश चौबे ने किया। विदित हो कि वरिष्ठ साहित्यकार प्रभाकर चौबे की स्मृति में प्रभाकर चौबे फाउंडेशन द्वारा हर वर्ष एक संवाद का आयोजन किया जाता है। सर्वप्रथम उपस्थित सुधिजनो द्वारा प्रभाकर चौबे को पुष्प अर्पित कर श्रद्धांजलि दी गई।

प्रभाकर चौबे स्मृति संवाद श्रंखला चार में सर्वप्रथम वक्तव्य देते हुए प्रो सियाराम शर्मा ने प्रभाकर चौबे को याद करते हुए कहा कि चौबे जी हर वर्ग से साहित्यिक संवाद निरंतर करते थे और संवाद के जरिए श्रद्धांजलि देने से बेहतर आयोजन कुछ नहीं है। प्रो शर्मा ने साहित्य के निरंतर अपदस्थ होने पर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि हर काल की तरह आज के समय में साहित्य की जरूरत अधिक है क्योंकि साहित्य ही मनुष्य को मनुष्य बनाने का रचनात्मक काम करता है।

वरिष्ठ आलोचक प्रो जयप्रकाश ने भी साहित्य की नयी चुनौती संवाद को आगे बढ़ाते हुए कहा कि हर समय ही साहित्य व कला की चुनौती अपने भीतर और बाहर रही है। साहित्य की आंतरिक चुनौती यथार्थ से साक्षात्कार की होती है। हर बड़ी रचना भविष्य के निर्माण की राह भी होती है, जैसे प्रेमचंद और मैक्सिम गोर्की की रचनाएं अपने काल को उजागर करती हुई हैं, लेकिन आज भी प्रासंगिक हैं, क्योंकि बड़े रचनाकार स्वयं से साक्षात्कार करते रहे हैं।

अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुणकात शुक्ला ने कहा कि हर काल में साहित्य की चुनौती रही है, लेकिन हमेशा साहित्य से ज्यादा साहित्यकारों के लिए चुनौती रही है। सत्ता से हमेशा ही चुनौती मिली उन्होंने कहा कि साहित्यकारों का काम ही सत्ता के विरोध में लगातार खड़े होकर जनजागरण का काम करना रहा है और यह होता भी आया है लेकिन इस ख़तरनाक दौर में आजादी को सबसे बड़ा खतरा है, हालांकि पहले भी रहा है परंतु यह समय साहित्यिक विरोध सहित हर तरह के विरोध कुचलने का अधिक है। उन्होंने देश भर में साहित्यकारों, पत्रकारों , विचारकों,सोशल एक्टिविस्ट पर हो रहे हमले पर चिंता जताई और इनके समर्थन में साहित्यकारों को खड़े होने का आव्हान किया।

इस मौके पर फाऊंडेशन के अध्यक्ष जीवेश चौबे ने संचालन करते हुए साहित्य में हिन्दी में कम हो रहे पाठकों पर चिंता जताई और महिला पाठकों की अधिकाधिक भागीदीरी की कोशिशों पर बल दिया। प्रो. सियाराम शर्मा ने अपने वक्त्य में कहा कि साहित्य आदमी होने की तमीज भी सिखाता है और हर छोटे से छोटे क्षण की चिंता पर जागरूक करता है। उन्होंने कहा कि साहित्यकार दी गई दुनिया में बेहतर का सपना देखता है, यानी वैकल्पिक दुनिया का सपना साकार करने का स्वप्न संजोए रखता है, लेकिन आज संकट स्वप्नहीनता का है। हर बड़ा लेखक या मनुष्य भी स्वप्न नहीं देखता तो,वह पंख हीन पक्षी की तरह है। आज साहित्य में कैसे बेहतरीन साहित्य के सपने की वापसी करे,यह भी चुनौती है।

प्रो शर्मा ने लेखकों के वैचारिक प्रतिबद्धता को लेकर भी सवाल उठाए कि बिना वैचारिक प्रतिबद्धता के स्वप्न का साहित्य कठिन है और कुछ लेखकों की प्रतिबद्धता, समर्पण भी कमजोर हुआ है या टूटा है,यह भी साहित्य के लिए बड़ी चुनौती है। साहित्य और समाज में भ्रष्ट होती भाषा पर भी प्रो शर्मा ने चिंता जताई।भाषा के अर्थहीन होने के दौर में ज्यादा रचनात्मक होकर जनता के बीचो बीच जाना भी चुनौती है। उन्होंने साहित्य में तकनीक को भी एक नई चुनौती है। उन्होंने तकनीक को मन मस्तिष्क, स्मृति चेतना को गुलाम बनाती है,इस तकनीक की गुलामी से साहित्य को मुक्त होने की भी चुनौती है। टेक्नोलॉजी ने साहित्य को विस्थापित करने की प्रक्रिया भी निभाई, इससे भी निबटने की चुनौती रही। उन्होंने भूमंडलीकरण और पूंजी की दुनिया में लिखने पढ़ने के लिए अवकाश, चिंतन की परंपरा भी कमजोर हुई है, साहित्य अवकाश का काम है, आज आठ घंटे की बजाए बारह घंटे से ज्यादा काम करने से चिंतन की परंपरा भी कमजोर हुई है। उन्होंने लेखकों के आत्म प्रचार पर अधिक केन्द्रीत होने की बजाए आत्म संघर्ष पर ज़ोर देने की बात की। उन्होंने कहा कि आज भी अनेक चुनौती है लेकिन फासिस्ट साहित्यकारों से जन लेखन साहित्य को बड़ी चुनौती है।इन सबके बावजूद समाज में बदलाव का साहित्य ही सबसे बड़ी ताकत है।

प्रो.जयप्रकाश अपने वक्त्वय में साहित्य में भाषा के भ्रष्ट होने के इतिहास भी गिनाए, जो आज भी एक चुनौती है। उन्होंने कहा कि समस्या भाषा में नहीं है, बल्कि सृजनकर्ता में अधिक है,जिस पर ध्यान देना चाहिए। सत्ता के द्वारा भी भाषा के अवमूल्यन की बात की।उन्होंने राजनीतिक सत्ता को भी भाषा के भ्रष्ट होने का जिम्मेदार माना और इस भ्रष्ट भाषा को चुनौती मानकर संभलने की बात की।आज के हालात में साहित्यकारों व साहित्य के सामने अनेक चुनौती है, इनसे जन भागीदारी कर ही निबटा जा सकेगा और अपनी अनेक असहमति को दरकिनार कर हालात से एक होना होगा। उन्होंने कहा कि बिना प्रतिरोध का साहित्य रचे चुनौती से निबटना कठिन होता है। साहित्य के सामने हमेशा ही सत्ता सहनशील नहीं रही और सत्ता, पूंजी व साम्राज्य वादी बाजार का गठजोड़ चुनौती रहा है।

अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में श्री अरुणकात शुक्ला ने कहा कि हर काल में साहित्य की चुनौती रही है, लेकिन साहित्य से ज्यादा साहित्यकारों के लिए चुनौती रही है। सत्ता से हमेशा ही चुनौती मिली उन्होंने कहा कि साहित्यकारों का काम ही सत्ता के विरोध में लगातार खड़े होकर जनजागरण का काम करना रहा है और यह होता भी आया है लेकिन इस ख़तरनाक दौर में आजादी को सबसे बड़ा खतरा है, हालांकि पहले भी रहा है परंतु यह समय साहित्यिक विरोध सहित हर तरह के विरोध कुचलने का अधिक है। उन्होंने देश भर में साहित्यकारों, पत्रकारों, विचारकों,सोशल एक्टिविस्ट पर हो रहे हमले पर चिंता जताई और इनके समर्थन में साहित्यकारों को खड़े होने का आव्हान किया।

आयोजन में प्रगतिशील लेखक संघ व इप्टा के लोकबाबू, राजेश श्रीवास्तव, परमेश्वर वैष्णव, आलोक चौबे, विमल शंकर झा,,रानू श्रीवास्तव, मणिमय मुखर्जी,सुचिता मुखर्जी, चित्रांश,, श्रीवास्तव,,छत्तीसगढ़ साहित्य अकादमी के अध्यक्ष ईश्वर सिंह दोस्त,पथिक तार,गोर्की श्रीवास्तव,अधीर भगवानानी,पवन चंद्राकर, उमा शंकर ओझा, धर्मेंद्र राठोड़, डॉ कोमल सिंह, दुर्गेश ताम्रकार, रोली यादव,आत्माराम, विश्वजीत हरोडे, प्रभात कुमार तिवारी, पोषण लाल वर्मा, राधिका तारक सहित बड़ी संक्या में विद्वजन उपस्थित थे।

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