रायपुर (खबरगली) आज हिंदी के शीर्ष कवि-कथाकार विनोद कुमार शुक्ल को हिंदी का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार, उनके रायपुर स्थित निवास पर दिया गया. ज्ञानपीठ के महाप्रबंधक आरएन तिवारी ने सम्मान के साथ उन्हें वाग्देवी की प्रतिमा और पुरस्कार का चेक उन्हें प्रदान किया गया.
विनोद कुमार शुक्ल ने अपने पाठकों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा- “जब हिन्दी भाषा सहित तमाम भाषाओं पर संकट की बात कही जा रही है, मुझे पूरी उम्मीद है नई पीढ़ी हर भाषा का सम्मान करेगी. हर विचारधारा का सम्मान करेगी. किसी भाषा या अच्छे विचार का नष्ट होना, मनुष्यता का नष्ट होना है.” वे पिछले कई सालों से बच्चों और किशोरों के लिए भी लिख रहे हैं. अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा कि “मुझे बच्चों, किशोरों और युवाओं से बहुत उम्मीदें हैं. मैं हमेशा कहता रहा हूँ कि हर मनुष्य को अपने जीवन में एक किताब जरूर लिखनी चाहिए. अच्छी किताबें हमेशा साथ होनी चाहिए. अच्छी किताब को समझने के लिए हमेशा जूझना पड़ता है. किसी भी क्षेत्र में शास्त्रीयता को पाना है तो उस क्षेत्र के सबसे अच्छे साहित्य के पास जाना चाहिये.”
आलोचना को लेकर उन्होंने कहा कि “किसी अच्छे काम की आलोचना अगर की जाती है तो उन आलोचनाओं को अपनी ताकत बना लें. आलोचना जो है, दूसरों का विचार है, जो उपयोगी या अनुपयोगी हो सकता है. किसी कविता की सबसे अच्छी आलोचना का उत्तर उससे अच्छी एक और नयी कविता को रच देना है. किसी काम की सबसे अच्छी आलोचना का उत्तर, उससे और अच्छा काम करके दिखाना होना चाहिए. साहित्य में गलत आलोचनाओं ने अच्छे साहित्य का नुक़सान ज्यादा किया है.” उन्होंने कहा कि “जीवन में असफलताएँ, गलतियाँ, आलोचनाएँ सभी तरफ़ बिखरी पड़ी मिल सकती हैं, वे बहुत सारी हो सकती हैं. उस बिखराव के किसी कोने में अच्छा, कहीं छिटका सा पड़ा होगा. दुनिया में जो अच्छा है, उस अच्छे को देखने की दृष्टि हमें स्वयं ही पाना होगा. इसकी समझ खुद विकसित करनी होगी. हमें अपनी रचनात्मकता पर ध्यान देना चाहिये. जब कहीं, किसी का साथ न दिखाई दे, तब भी चलो. अकेले चलो. चलते रहो. जीवन में उम्मीद सबसे बड़ी ताकत है. मेरे लिये पढ़ना और लिखना साँस लेने की तरह है.”
उन्होंने अपनी एक कविता का भी पाठ किया
सबके साथ सबके साथ हो गया हूँ अपने पैरों से नहीं सबके पैरों से चल रहा हूँ अपनी आँखों से नहीं सबकी आँखों से देख रहा हूँ जागता हूँ तो सबकी नींद से सोता हूँ तो सबकी नींद में मैं अकेला नहीं मुझमें लोगों की भीड़ इकट्ठी है मुझे ढूँढो मत मैं सब लोग हो चुका हूँ मैं सबके मिल जाने के बाद आख़िर में मिलूँगा या नहीं मिल पाया तो मेरे बदले किसी से मिल लेना.
विनोद कुमार शुक्ल के बारे में
छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में 1 जनवरी 1937 को जन्मे, लगभग 90 की उम्र के होने को आए विनोद कुमार शुक्ल हिंदी साहित्य के ऐसे रचनाकार हैं, जो बहुत धीमे बोलते हैं, लेकिन साहित्य की दुनिया में उनकी आवाज़ बहुत दूर तक सुनाई देती है. मध्यमवर्गीय, साधारण और लगभग अनदेखे रह जाने वाले जीवन को शब्द देते हुए हिंदी में एक बिल्कुल अलग तरह की संवेदनशील, न्यूनतम और जादुई दुनिया रची. वे उन दुर्लभ लेखकों में हैं, जिनके यहाँ एक साधारण कमरा, एक खिड़की, एक पेड़, एक कमीज़ या घास का छोटा-सा टुकड़ा भी किसी पूरे ब्रह्मांड की तरह खुल जाता है. उनका पहला कविता संग्रह ‘लगभग जय हिन्द’ 1971 में आया और वहीं से उनकी विशिष्ट भाषिक बनावट, चुप्पी और भीतर तक उतरती कोमल संवेदनाएँ हिंदी कविता में दर्ज होने लगीं. आगे चलकर ‘वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह’ (1981), ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’ (1992), ‘अतिरिक्त नहीं’ (2000), ‘कविता से लंबी कविता’ (2001), ‘आकाश धरती को खटखटाता है’ (2006), ‘पचास कविताएँ’ (2011), ‘कभी के बाद अभी’ (2012), ‘कवि ने कहा’, चुनी हुई कविताएँ (2012) और ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ (2013) जैसे संग्रहों ने उन्हें समकालीन हिंदी कविता के सबसे मौलिक स्वरों में शुमार कर दिया.
उनकी कविताएँ बोलने से ज़्यादा सुनने वाली, नारेबाज़ी से कहीं अधिक, धीमी फुसफुसाहट की तरह काम करती हैं, लेकिन असर उनका बहुत दीर्घकालिक है. उनके उपन्यास ‘नौकर की कमीज़’ (1979) ने हिंदी कथा-साहित्य में एक नया मोड़ दिया, जिस पर मणि कौल ने फिल्म भी बनाई. इसके बाद ‘खिलेगा तो देखेंगे’ (1996), ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ (1997, साहित्य अकादमी पुरस्कार), ‘हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़’ (2011), ‘यासि रासा त’ (2016) और ‘एक चुप्पी जगह’ (2018) के माध्यम से उन्होंने लोकआख्यान, स्वप्न, स्मृति, मध्यवर्गीय जीवन और मनुष्य की अस्तित्वगत जटिल आकांक्षाओं को एक नये कथा-ढांचे में समाहित किया. कहानी-संग्रह ‘पेड़ पर कमरा’ (1988), ‘महाविद्यालय’ (1996), ‘एक कहानी’ (2021) और ‘घोड़ा और अन्य कहानियाँ’ (2021) में भी वही सूक्ष्म, घरेलू और लगभग उपेक्षित जीवन-कण अद्भुत कथा-समृद्धि के साथ उपस्थित होते हैं.
उनकी रचनाएँ अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनूदित हुईं. ‘The Servant’s Shirt’, ‘A Window Lived In The Wall’, ‘Once It Flowers’, ‘Moonrise From The Green Grass Roof’, ‘Blue Is Like Blue’, ‘The Windows In Our House Are Little Doors’ जैसे अंग्रेज़ी अनुवादों ने उन्हें वैश्विक पाठकों तक पहुँचाया. ‘नौकर की कमीज़’ और ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ के साथ ‘पेड़ पर कमरा’ और अनेक कविताएँ विदेशी तथा भारतीय भाषाओं में रूपांतरित होकर एक व्यापक पाठक-वृत्त तक पहुँचीं. कई रचनाओं पर फिल्में बनीं, नाटक लिखे गए.
साहित्य अकादमी पुरस्कार, गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप, रज़ा पुरस्कार, शिखर सम्मान, राष्ट्रीय मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान, हिंदी गौरव सम्मान, ‘Blue Is Like Blue’ के लिए मातृभूमि पुरस्कार, साहित्य अकादमी का महत्तर सदस्य सम्मान और 2023 का पैन-नाबोकोव पुरस्कार जैसी उपलब्धियाँ उनके दीर्घ, शांत और गहन रचनात्मक सफ़र की सार्वजनिक स्वीकृति हैं. लेकिन इन सब के बीच उनका लेखक-स्वर वही बना रहा-संकोची, आंतरिक, लगभग अदृश्य, जो शब्दों की अत्यधिक सजावट से बचते हुए, बेहद सरल वाक्यों में हमारे भीतर एक खिड़की खोल देता है, जहाँ से दुनिया थोड़ी और मानवीय, थोड़ी और कल्पनाशील और थोड़ी और सच दिखाई देने लगती है.
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